ममतामयी माँ जीवनदायिनी, प्राणिमात्र को स्वरूपदायिनी।
हर प्राणी की संचारवाहिनी, नमन तुझे हे वीणावादिनी।।
(स्वरचित - मनीष प्रताप सिंह राजावत)
बेटी बेटी सब कहते हें, पर बेटी का मान नहीं है।
पत्थर की मूरत हो जैसे, देवी है पर संतान नहीं है।
मंदिर में पूजी जाती है, पर नज़रों में सम्मान नहीं है।।
स्वप्नपरी कहलाती है, पर घर में वो स्थान नहीं है।
श्रस्ति की जो संवाहक़ है, क्या ये उसका अपमान नहीं है।।
मानवता उससे हारी है, जो दुनिया की पालनहारी है।
गर्भ में ही हत्या हो जिसकी, जो पापों की संहारी है।।
मंदिर में रखी मूरत बस, जो केवल पूजी जाती है।
अधिकारों की बात चले तो, दूजे घर ब्याही जाती है।।
पाप बढ़ा जब धरती पर, महिसासुर तक से जूझ गयी।
बचा प्राण पति सत्यवान के, नियम प्रकति का बदल गयी।।
मत समझो दुर्बल नारी को, ये उसका अभिमान नहीं है।
इतिहास के अक्षर कहते हें, लक्ष्मीबाई सा मान नहीं है।।
संग सटी बन जाती है, जब बात आबरू पर आ जाये।
वयर्थ गवां दे जीवन जो, वो इतनी नादान नहीं है।।
जीवन अर्पण कर देती है, रिश्तों की लाज बचाने में।
पर धृष्टराष्ट्र मानवता पर, इसका भी अहसान नहीं है।।
आँचल में भरा ममता सागर, वो कष्टों से अनजान नहीं है।
उस जग में बचती फिरती हें, जहाँ लक्ष्मी बिन भगवान नहीं हैं।।
बेटी ही माँ कहलाती है, इतनी भी पहचान नहीं है।
जग जननी के रूप अनेकों, पर कोई सम्मान नहीं है ।।
बेटी तो बेटी बस कोमल काया, चद्रसहोदरी अद्भुत छाया।
खुद नारीश्वर समझ न पाया, महावेदिनी की महामाया।।
सुन पृथ्वी के वासी रे, तू बिंदु मात्र की छाया है।
नापेगा ब्रह्माण्ड अगर, जहाँ जीवन तूने पाया है।।
ये दुर्भाग्य तेरा बस तेरा, जो तूने ढोंग रचाया है।
बेटी के जीवन पर तूने, जो अधिकार जमाया है ।।
बेटी तो सब पर भारी है, फिर भी उसका सम्मान नहीं है ।
अगर अभागन वो बेटी है, तो तेरी भी पहचान नहीं है।।
कन्यादान महादान, जो कोई कोई कर पाता है।
सौभाग्य छिना ये मुझसे तो, जो जीवन को पार लगता है।।
जीवन कालिदास बना, जो सिर्फ मुर्ख कहलाया था।
बेटी से साश्त्रार्थ हुआ, तब महाकवि बन पाया था।।
साहस, त्याग और तपस्या, क्या नारी इसकी पहचान नहीं है।
राधा, सीता और अहिल्या, मदर टेरेसा तक का अहसान नहीं है।।
करुणा, ममता और शौर्यता, क्या ये गुण वो पहचान नहीं है।
इंदिरा, उषा, और कल्पना, अभी कोई विराम नहीं है।।
जो मानवता पर भारी है, पर जग वो पहचान नहीं है।
हर दुःख से जूझ जो जाती है, पर जीने का अधिकार नहीं है।।
रे निर्लजी पुरुष तू, ये मानवता का गुणगान नहीं है।
आधी आबादी सिसक रही है, ये भविष्य कोई महान नहीं है ।।
बेटी को कुचला जाता है, पत्नी को जलाया जाता है।
धरा को भी माँ दरजा देकर, सीना चीरा जाता है।।
समाज बने गांधारी जब, मर्यादा को नोचा जाता है।
रिश्तों का कोई परिवेश नहीं, परिहास उड़ाया जाता है।।
सरेआम चौराहों पर, डोली जब लूटी जाती है।
कुछ मनचले कहारों से, अर्थी जो सजायी जाती है।।
माँ, पत्नी या बेटी हो, बोली जो लगायी जाती है।
हर हालत में केवल बस, बेटी ही लूटी जाती है।।
कितना अँधा है मानव तू, रिश्तों की कोई पहचान नहीं है।
जन्मा है जिस कोख से तू, बस उसका ही नाम नहीं है।।
शर्मिंदा इतिहास आज तक, पर पुरुष तुझे अहसास नहीं है।
द्रोपदी तक को बाँट लिया, अपनी करनी पर लाज नहीं है ।।
बेटी को समझा गया खिलौना, क्या कहते वेद पुराण नहीं है।
सीता को वनवास दे दिया, क्या ये नारी अपमान नहीं है ।।
कर्मयोग सिखलाया जिसने, वो राधा भी बेटी थी।
द्वारिकाधीश जो कहलाये, वो उसकी ही कठौती थी ।।
राजा होंगे राम बहुत, प्रभु राम नहीं बन सकते थे।
बिन सीता वन गमन बिना, क्या मर्यादा पुरुषोत्तम कह सकते थे ।।
पाप बढ़ा जब धरती पर, तब देवासुर संग्राम हुआ।
हाथ जोड़ सब खड़े हो गये, तब माँ का अभिराम हुआ ।।
सिंघवाहिनी दुर्गा ने, दुष्टों का था जो विनाश किया।
मत भूलो उसने भी तो, एक बेटी स्वरुप में जन्म लिया।।
एक बेटी की गरिमा का, आसान कोई अपमान नहीं है।
अहंकार का पुतला नर, नारी बिन जीवन मान नहीं है।।
ह्रदय करुणता सागर है, सीरत लज़्ज़ा की गागर है।
ममता की वैशाखी पर, जो करती सब का आदर है।।
पर जगत क्यों निर्मोही बना, उस पर दया दिखाने में।
हर मोड़ पे क्यों वो छली गयी, अपना अधिकार भी पाने में ।।
गालों की सिलवट मात्रा ही, जीवन की थकन मिटाती है।
फिर नाजुक हाथों की थप्पी, हर गम की दवा बन जाती है ।।
ये जादू तो बेटी ही, केवल बेटी कर पाती है।
दो परिवारों के रिश्तों की, एक डोर बन जाती है।।
साहस मर्यादा की मूरत वो, हर घर द्वार सजाती है।
अगर सजी हो कोठे पर, तब भी ईमान का खाती है ।।
मक्कारी के दलदल में, जो कमल स्वरूपा खिलती है।
लाचारी के हवन कुंड में, खुद को अर्पण कर देती है ।।
धिक्कार है उस समाज को, वो जिसका हिस्सा बन जाती है।
नियम बनाये पुरुषों ने, बेटी दोषी रह जाती है ।।